जब कभी हम तिरे कूचे से गुज़र जाते हैं लौह-ए-इदराक पे कुछ और उभर जाते हैं हुस्न से लीजिए तंज़ीम-ए-दो-आलम का सबक़ सुब्ह होती है तो गेसू भी सँवर जाते हैं हम ने पाया है मोहब्बत का ख़ुमार-ए-अबदी कैसे होते हैं वो नश्शे कि उतर जाते हैं इतने ख़ाइफ़ हैं मय-ओ-मह से जनाब-ए-वाइज़ नाम-ए-क़ौसर भी जो सुनते हैं तो डर जाते हैं मय-कदा बंद मुक़फ़्फ़ल हैं दर-ए-दैर-ओ-हरम देखना है कि 'शकील' आज किधर जाते हैं