शुऊ'र-ए-फ़ितरत-ए-इंसाँ का है बेदार हो जाना कहीं मजबूर बन जाना कहीं मुख़्तार हो जाना दिखा कर इक झलक उस का पस-ए-दीवार हो जाना यही तो आशिक़ों के हक़ में है तलवार हो जाना मिरे सोए हुए जज़्बात का बेदार हो जाना किसी बेहोश का है ख़ुद-बख़ुद हुश्यार हो जाना करूँ मैं ख़ून का दा'वा तो पेश-ए-दावर-ए-महशर क़यामत है मगर क़ातिल से आँखें चार हो जाना शिकस्त-ए-बे-सुतून-ओ-मौज-ए-जू-ए-शीर शाहिद हैं नहीं आसान राह-ए-इश्क़ का हमवार हो जाना शरफ़ है ये फ़क़त इक अशरफ़-उल-मख़्लूक़ इंसाँ का फ़ज़ा-ए-आलम-ए-इम्काँ की हद से पार हो जाना ब-क़ौल-ए-'मीर' ये इंसान पर तोहमत-तराशी है किसी मजबूर का मुमकिन नहीं मुख़्तार हो जाना यूँ ही याद-ए-ख़ुदा आ जाती है मुझ को कभी 'शो'ला' कि जैसे सोते सोते ख़्वाब से बेदार हो जाना