जब कभी किसी गुल पर इक ज़रा निखार आया कम-निगाह ये समझे मौसम-ए-बहार आया हुस्न ओ इश्क़ दोनों थे बे-कराँ ओ बे-पायाँ दिल वहाँ भी कुछ लम्हे जाने कब गुज़ार आया उस उफ़ुक़ को क्या कहिए नूर भी धुँदलका भी बार-हा किरन फूटी बार-हा ग़ुबार आया हम ने ग़म के मारों की महफ़िलें भी देखीं हैं एक ग़म-गुसार उठा एक ग़म-गुसार आया आरज़ू-ए-साहिल से हम किनारा क्या करते जिस तरफ़ क़दम उठे बहर-ए-बे-कनार आया यूँ तो सैकड़ों ग़म थे पर ग़म-ए-जहाँ 'जज़्बी' बअ'द एक मुद्दत के दिल को साज़गार आया