कौन कहता मुझे शाइस्ता-ए-तहज़ीब-ए-जुनूँ मैं तिरी ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ को अगर छेड़ न दूँ कौन हसरत-ज़दा-ए-शौक़-ए-तकल्लुम है यहाँ लड़खड़ाता है तिरी चश्म-ए-सुख़न-गो का फ़ुसूँ ये हुजूम-ए-ग़म-ए-दौराँ में कहाँ याद रहा दास्तान-ए-ग़म-ए-दिल तेरे तग़ाफ़ुल से कहूँ क्या ख़बर ख़ेमा-ए-लैला के निगहबानों को कि हरीम-ए-दिल-ए-लैला में है मेहमान-ए-जुनूँ रंग रह रह के तिरे रुख़ का उड़ा जाता है वर्ना मैं और तिरी महफ़िल-ए-तमकीं से उठूँ क़ैद-ए-हस्ती में ये इक गोशा-ए-दामान-ए-ख़याल फिर ग़नीमत है कि ज़िंदाँ में भी आज़ाद तो हूँ हो सलीक़े से बहकना तो मज़ा देता है मिरे साक़ी को गुमाँ है कि बहुत होश में हूँ जुस्तुजू की कोई मंज़िल जो नहीं है तो न हो हिम्मत-ए-इश्क़ ये कहती है कि बढ़ता ही रहूँ अब तिरे हाल पे तुझ को दिल-ए-नादाँ छोड़ा सोचना भी तो क़यामत है कहाँ तक सोचूँ मैं ने पहचान लिया उस को सर-ए-बज़्म 'रविश' उस की आँखों को है इसरार कि ख़ामोश रहूँ