जब ख़बर ही न कोई मौसम-ए-गुल की आई काग़ज़ी फूल पे कुछ सोच के तितली आई सब्ज़ पत्तों ने भी शाख़ों से बग़ावत कर दी आज इस शहर में किस ज़ोर की आँधी आई अब ये बस्ती हुई दीवारों की कसरत का शिकार अब यहाँ रहने में बे-तरह ख़राबी आई क़हक़हा शब ने लगाया है बड़े तंज़ के साथ सुब्ह जब अपनी रिहाई पे भी रोती आई आँख इक अब्र के टुकड़े को तरस जाती थी बारिशों से जहाँ अब इतनी तबाही आई रात-भर सुब्ह की उम्मीद पे ज़िंदा था मरीज़ सुब्ह होते ही उसे आख़िरी हिचकी आई मर गया हब्स की बस्ती में जूँही कोई 'नसीम' नौहा-ख़्वानी को वहाँ ताज़ा हवा भी आई