जब ख़ंजर-ए-क़ातिल से न इंकार हुआ चुप आख़िर मिरे हाथों का तलबगार हुआ चुप शमशीर-ए-क़लम मौत के बाज़ार से गुज़रा तारीख़ बताए कहाँ किरदार हुआ चुप ये देख के मैदाँ में परेशाँ है सितमगर मक़्तूल नहीं ख़ंजर-ए-खूँ-ख़्वार हुआ चुप उस इश्क़-ए-हक़ीक़ी की दुआ माँगिये भाई जो नोक-ए-सिनाँ पर न सर-ए-दार हुआ चुप की मिम्बर-ए-लब से जो तबस्सुम में ख़िताबत सज्दे में गिरे तीर कमाँ-दार हुआ चुप आँखें न हुईं बंद कभी दस्त-ए-अजल से ये बात अलग तालिब-ए-दीदार हुआ चुप सय्याद को नींद आए ये मुमकिन ही कहाँ था बेड़ी न कभी तौक़-ए-गिराँ-बार हुआ चुप जब उस का सवाल आ गया तन्क़ीद की ज़द में सकते में ग़ुरूर आ गया दरबार हुआ चुप मालूम न थी उस को मिरे अश्कों की निस्बत क़ीमत जो बताई तो ख़रीदार हुआ चुप अश्कों से किया मातम-ए-मज़लूम सर-ए-आम बे-नुत्क़ भी हो कर न अज़ादार हुआ चुप