जब कि मानूस था आलाम के गिर्दाब से भी मिल गया ज़हर-ए-तमस्ख़ुर कई अहबाब से भी मेरे रिसते हुए ज़ख़्मों का मुदावा न हुआ ये शिकायत है तिरे शहर के आदाब से भी अब उन्हें आँख की पुतली में छुपाना होगा दाग़ जो धुल न सके चश्मा-ए-महताब से भी कोई तो ज़ख़्म मिरा साज़-ए-तकल्लुम छेड़े कोई तो बात चले दीदा-ए-पुर-आब से भी चश्म-ए-बे-ख़्वाब के ख़्वाबों की जो ता'बीर बना वही दिखला गया आँखों को कई ख़्वाब से भी मेरा क्या ज़िक्र है गुलशन भी है मग़्मूम 'ख़याल' हो गए आप ख़फ़ा गोशा-ए-शादाब से भी