यूँ देखने में तो ऊपर से सख़्त हूँ शायद मगर दरून-ए-बदन लख़्त लख़्त हूँ शायद मिरे नसीब में लिक्खी है शब की तारीकी मैं डूबते हुए सूरज का बख़्त हूँ शायद क़रीब ओ दूर नहीं है कोई भी अपना सा उजाड़ बाग़ का तन्हा दरख़्त हूँ शायद मुझे किसी ने सुना ही नहीं तवज्जोह से मैं बद-ज़बान सदा-ए-करख़्त हूँ शायद नहीफ़ काँधों पे बार-ए-ग़म-ए-दो-आलम है सरापा राहू ओ केतू का तख़्त हूँ शायद मिरी तलाश में है कोई ऐसा लगता है किसी का गुम-शुदा 'शादाब' रख़्त हूँ शायद