जब कोई भी ख़ाक़ान सर-ए-बाम न होगा फिर अहल-ए-ज़मीं पर कोई इल्ज़ाम न होगा कल वो हमें पहचान न पाए सर-ए-राहे शायद उन्हें अब हम से कोई काम न होगा फिर कौन समझ पाएगा असरार-ए-हक़ीक़त जब फ़ैसला कोई भी सर-ए-आम न होगा ये अहद-ए-रवाँ ख़ाक-निशाँ ध्यान में रक्खो फिर ढूँडोगे किस को जो कोई नाम न होगा बनने को है इक रोज़ परिंदों का मुक़द्दर उतरेंगे तो हम-रंग-ए-ज़मीं दाम न होगा महफ़िल में अगर ज़िक्र हो अरबाब-ए-वफ़ा का ऐसा नहीं 'राहत' कि तिरा नाम न होगा