जब मकीनों को मकीं आराम दे सकते नहीं चार-दीवारी को घर का नाम दे सकते नहीं ज़िंदगी ने बख़्श दी है वो ‘अदीम-उल-फ़ुर्सती अब तो ख़ुद को अपने सुब्ह-ओ-शाम दे सकते नहीं शामत-ए-आ’माल से हम पर मुसल्लत हो गया हम अमीर-ए-शहर को इल्ज़ाम दे सकते नहीं दोस्तो करते रहेंगे आप के हक़ में दु'आ और तो ख़िदमत कोई अंजाम दे सकते नहीं पल रहे हैं कितने बच्चे रूखी-सूखी पर 'मुनीर' हम उन्हें चिल्ग़ोज़ा-ओ-बादाम दे सकते नहीं