जब मिरी सम्त हसीं यादों के पत्थर बरसे ख़ैर-मक़्दम को चले अश्क भी चश्म-ए-तर से यूँ कोई शीश-महल कर गया दिल का वीराँ जिस तरह चल दे कोई रूठ के अपने घर से दिल में यूँ ज़ेहन से दर आती है याद-ए-माज़ी घर में जिस तरह से उतरे कोई ज़ीने पर से दिल को इज़्हार-ए-तमन्ना की तमन्ना थी बहुत लब मगर हिल न सके अहल-ए-जहाँ के डर से तर्क-ए-उल्फ़त का कोई रद्द-ए-अमल तो देखे बोलना छोड़ दिया मैं ने ज़माने भर से दिल में मुद्दत से मोहब्बत की है झंकार न गूँज लाओ इस शीशे को टकराएँ किसी पत्थर से आज तक मुझ को बुलाती हैं सदाएँ उस की जिस ने लौटाया था इक दिन मुझे अपने दर से ये मोहब्बत की सज़ा जान ही ले ले न 'ज़फ़र' हम तो इक उम्र से सूरत को भी उस की तरसे