जब मुफ़क्किर मिरे अंदाज़-ए-बयाँ तक पहुँचे मेरी हालत मिरे हर राज़-ए-निहाँ तक पहुँचे वादी-ए-इश्क़ में हम लोग जहाँ तक पहुँचे कोई मजनूँ न कोई क़ैस वहाँ तक पहुँचे तिफ़्ल बाक़ी न रहे पीर-ओ-जवाँ तक पहुँचे मेरा पैग़ाम मोहब्बत है जहाँ तक पहुँचे ऐसे शिद्दत से गले उस ने लगाया मुझ को तीर जैसे कोई आग़ोश-ए-कमाँ तक पहुँचे कूचा-ए-यार से ग़ुस्से में निकल आया था उस ने पूछा भी नहीं आप कहाँ तक पहुँचे अपने दिल के किसी गोशे में हमें रहने दे बड़ी मुश्किल से मिरी जान यहाँ तक पहुँचे ये कोई इश्क़ नहीं हम जो किया करते हैं इश्क़ ऐसा हो कि सर नोक-ए-सिनाँ तक पहुँचे चश्म-ए-तारीख़ न देखेगी अब ऐसे प्यासे एक क़तरा न पिया आब-ए-रवाँ तक पहुँचे सल्ब कर लेगा ख़ुदा आप से सारी ख़ुशियाँ तल्ख़ अल्फ़ाज़ अगर बाप या माँ तक पहुँचे नफ़्स क़ाबू में रहे होश रहे इज़्ज़त का जब कोई इब्न-ए-फुलाँ बिन्त-ए-फुलाँ तक पहुँचे अपने माशूक़ से मैं इश्क़ का इज़हार करूँ मेरी आवाज़ जो दहलीज़-ए-समाँ तक पहुँचे दाद-ओ-तहसीन से दुनिया ने नवाज़ा मुझ को शेर बन कर जो मिरे दर्द ज़बाँ तक पहुँचे बाद मरने के ये मरक़द में पुकारा 'महवर' ख़ैर से दोस्तो हम अपने मकाँ तक पहुँचे