मैं ने इस तौर से आँखों में बसाए रुख़्सार मैं ने जिस सम्त नज़र की नज़र आए रुख़्सार रू-ब-रू हो के मुसव्विर ने मिरी आँखों में इक नज़र देख के काग़ज़ पे बनाए रुख़्सार क़ल्ब-ए-मुज़्तर को मिला चैन भरी महफ़िल में उस ने चिलमन को हटा कर जो दिखाए रुख़्सार लफ़्ज़ घबराते हुए किल्क से बाहर निकले हाए तहरीर की जिस वक़्त सना-ए-रुख़्सार गेसू-ए-यार ने इस वास्ते पहरा रक्खा कोई अंजान बशर देख न पाए रुख़्सार जब कभी अश्कों की बारिश में नहाए रुख़्सार लब से निकला मिरे बे-साख़्ता हाए रुख़्सार अपने रुख़्सार तलक लब नहीं जाते मेरे जी में आता है कि चूमूँ मैं पराए रुख़्सार एक लम्हे के लिए ज़ुल्फ़ें हटी थीं 'महवर' चश्म-ए-बातिन में हुई क़ैद अदा-ए-रुख़्सार