जब नाज़-ए-इश्क़ हुस्न के क़ाबिल नहीं रहा फिर वो कुछ और ही है मिरा दिल नहीं रहा कहती है दिल के हाल पे घबरा के बे-ख़ुदी ये आप में भी आने के क़ाबिल नहीं रहा इक जल्वा पेश पेश है और बढ़ रहे हैं हम अब कुछ ख़याल-ए-दूरी-ए-मंज़िल नहीं रहा दुनिया यही है शक है तो इस को मिटा के देख फिर कुछ नहीं जहान में जब दिल नहीं रहा पूरी जज़ा मिलेगी इसी दिल को हश्र में जिस को ख़याल-ए-शिकवा-ए-क़ातिल नहीं रहा तम्कीं ग़ज़ब है साक़ी-ए-दौर-ए-अलस्त में शायद ख़याल-ए-गर्मी-ए-महफ़िल नहीं रहा दुनिया से पूछ देख कोई ज़र्रा दहर का तज़ईन-ए-काएनात से ग़ाफ़िल नहीं रहा ज़ीनत पे काएनात की जाने लगी नज़र अब मैं तिरे ख़याल के क़ाबिल नहीं रहा बस कर उजड़ चुकी हैं उमंगों की बस्तियाँ दुनिया में शाद आज कोई दिल नहीं रहा अफ़्सुर्दगी की जान है आज़ुर्दगी की रूह जो वलवलों की जान था वो दिल नहीं रहा है कल की बात था यही दुनिया-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ वीराना-ए-मलाल है अब दिल नहीं रहा 'बेख़ुद' किसी के नाज़-ए-दुई-सोज़ की क़सम कैसी नज़र ख़याल भी हाइल नहीं रहा