जब नज़र उट्ठी थी अपने घर तरफ़ सारी ख़ुशियाँ हो गई थीं बरतरफ़ रोज़-ओ-शब उभरी हैं सच की मंज़िलें अपने अंदर के हसीं मंज़र तरफ़ फिर कुँवारी रुत के हाथों था ख़ुमार फिर महकती टहनियाँ थीं हर तरफ़ मेरी अपनी ज़ात की है ये शनाख़्त हैं निगाहें मसनद-ए-अनवर तरफ़ आसमाँ से जा मिली दीवानगी एक पत्थर और मेरे सर तरफ़ जागते रहने के फ़न में ताक़ हूँ क्यों थकन ले जाएगी बिस्तर तरफ़