जला के अपने बदन को धुआँ हुआ था मैं बिखर बिखर के ज़मान-ओ-मकाँ हुआ था मैं तुम्हारे शहर के सूरज से कौन डरता है ग़मों की धूप में जल कर जवाँ हुआ था मैं समुंदरों ने मुझे कितने भेद समझाए ज़मीं पे फैल के जब बे-कराँ हुआ था मैं वरक़ वरक़ ने मिरे हाथ में क़लम सौंपा ग़ज़ल के शहर में जब बे-ज़बाँ हुआ था मैं हिसार-ए-दर्द से निकला तो यूँ हुआ तक़्सीम कहीं ज़मीन कहीं आसमाँ हुआ था मैं नई सदी के उजाले समेट कर ऐ 'सबा' नए उफ़ुक़ की तरफ़ ही रवाँ हुआ था मैं