जब पूरब में नील अम्बर पर इक काफ़ूरी फूल खिला रात गुज़रने के ग़म में तारों ने हीरा चाट लिया लोक परलोक पे फैल रही है यादों की चंचल ख़ुशबू ध्यान के ठहरे सागर में किस ने फिर कंकर फेंक दिया उस के नर्म मधुर बोलों ने दिल पर छावनी छाई थी या तपती सूखी धरती पर छाजों ही मेंह बरसा था जल वही है अमृत जल जिस से जन्म जन्म की प्यास बुझे चाहे वो पच्छिम का 'टेम्स' हो चाहे वो पूरब की गंगा क्या जाने क्या बात थी लेकिन हम जब पहली बार मिले वो भी खड़ी रही गुम-सुम सी और मैं भी चुप चाप रहा जब भी 'तूर' उसे ढूँडने को गहरे बनों में जाता हूँ इक आवाज़ ये कहती है मुझ से मूरख घर को वापस जा