जब समाअत तिरी आवाज़ तलक जाती है जाने क्यूँ पाँव की ज़ंजीर छनक जाती है फिर उसी ग़ार के असरार मुझे खींचते हैं जिस तरफ़ शाम की सुनसान सड़क जाती है जाने किस क़र्या-ए-इम्काँ से वो लफ़्ज़ आता है जिस की ख़ुश्बू से हर इक सत्र महक जाती है मू-क़लम ख़ूँ में डुबोता है मुसव्विर शायद आँख की पुतली से तस्वीर चिपक जाती है दास्तानों के ज़मानों की ख़बर मिलती है आईने में वो परी जब भी झलक जाती है ख़ुश्क पत्तों में किसी याद का शोला है 'सईद' मैं बुझाता हूँ मगर आग भड़क जाती है