जब सर-ए-शाम कोई याद मचल जाती है दिल के वीराने में इक शम्अ' सी जल जाती है जब भी आता है कभी तर्क-ए-तमन्ना का ख़याल ले के इक मौज कहीं दूर निकल जाती है ये है मय-ख़ाना यहाँ वक़्त का एहसास न कर गर्दिश-ए-वक़्त यहाँ जाम में ढल जाती है ख़्वाहिश-ए-ज़ीस्त ग़म-ए-मर्ग ग़म-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ ज़िंदगी चंद खिलौनों से बहल जाती है जब वो हँसते हुए आते हैं ख़यालों में 'कलीम' शाम-ए-ग़म सुब्ह-ए-मसर्रत में बदल जाती है