जब से अपने आप को पहचानता हूँ मैं पर्दे में हर लिबास के उर्यां हुआ हूँ मैं मुझ से मिलो कि मैं हूँ ज़माने की रौशनी ज़ुल्मत में आफ़्ताब की सूरत पड़ा हूँ मैं आँखें भी हों तो देखना आसाँ नहीं मुझे ताबानियों की कोहर में डूबा हुआ हूँ मैं अब अपनी शक्ल ढूँढता फिरता हूँ चार-सू तूफ़ान-ए-सद-निगाह में गुम हो गया हूँ मैं गहरे समुंदरों की तरह ख़ामुशी में गुम अपनी सदा के सेहर से लब खोलता हूँ मैं लम्हों का लम्स कर गया पत्थर मुझे 'नदीम' लेकिन लहू की आँच से हीरा बना हूँ मैं