जब से ख़िज़ाँ की ज़द में है मेरा चमन तमाम ओझल चमन से हो गए गुल-पैरहन तमाम याद आ गया किसी का बिछड़ना तो यूँ लगा हो ज़ख़्म ज़ख़्म जैसे मिरा तन बदन तमाम ये कौन था जो आया हँसा और चला गया ता देर खोई खोई रही अंजुमन तमाम क्या हर्फ़-ओ-लफ़्ज़ लौह-ओ-क़लम का भरम रहे हैं क़ैद अपने ख़ोल में अर्बाब-ए-फ़न तमाम दाग़-ए-फ़िराक़ तल्ख़ी-ए-अय्याम कर्ब-ए-ज़ात तेरे लिए क़ुबूल हैं रंज-ओ-मेहन तमाम होने दिया न कम तिरी यादों का हौसला चादर समझ कर ओढ़ रही हूँ थकन तमाम तेरी ही ज़ात है मिरा मौज़ूअ'-ए-शायरी तुझ पर निसार दौलत-ए-शेर-ओ-सुख़न तमाम आया 'वफ़ा' मिरा गुल-ए-रा'ना चमन में जब क़ुर्बान उस पे हो गए सर्व-ओ-समन तमाम