जब से मेरे बाग़ में अंगूर के दाने लगे मुझ को दुनिया में ही जन्नत के मज़े आने लगे मय-कशों ने ही नहीं ढूँडा मिरे घर का पता शैख़ साहब भी मुझे अब याद फ़रमाने लगे इक सुरूर-ओ-कैफ़ का आलम है तारी बिन पिए प्याले सादे पानी के भी मय के पैमाने लगे जगमगा उट्ठे हैं अतराफ़-ओ-जवानिब में दिए शम-ए-महफ़िल की पज़ीराई में परवाने लगे मह-रुख़ों की बज़्म में शिरकत नज़र आने लगी और तसव्वुर में धनक के रंग लहराने लगे ताएरों की चहचहाहट से हुआ यूँ दिल गुदाज़ मेरे हम-मशरब मुझे नग़्मों पे उकसाने लगे हम पे इक मसहूर-कुन सी कैफ़ियत तारी हुई और हम इस कैफ़ियत में झूम कर गाने लगे इस तिलिस्म-ए-रंग-ओ-बू के सेहर से निकले हैं जब हम को अक्सर दिन में भी तारे नज़र आने लगे