वो नज़र मेहरबाँ अगर होती ज़िंदगी अपनी मो'तबर होती नफ़रतों के तवील सहरा में इन की चाहत तो हम-सफ़र होती ऐ शब-ए-ग़म मिरे मुक़द्दर की तेरे दामन में इक सहर होती लम्हा लम्हा अज़िय्यतें हैं जहाँ याद ही उन की चारा-गर होती उन से मंसूब हो गए वर्ना ज़िंदगी किस तरह बसर होती हम ही 'आग़ाज़' गर्म-ए-सहरा थे ज़ुल्फ़ क्या साया-ए-शजर होती