जब से वो आ गए मिरे घर में रौशनी भर गई मुक़द्दर में लौट आया हूँ मैं किनारे से फेंक कर तिश्नगी समुंदर में किस की ख़ुशबू रही सर-ए-रस्ता कौन चलता रहा बराबर में इक ख़लिश थी जो मेरे दिल में रही एक सौदा था जो रहा सर में तुझ को खोया तो फिर किसी सूरत ज़िंदगी आ सकी न महवर में ऐसा लगता है आज का इंसान लौट आया है अह्द-ए-पत्थर में