जो तेरी राह का ज़र्रा नहीं था तो मैं ख़ुद इस क़दर ऊँचा नहीं था तुझे खो कर हुआ हूँ जिस क़दर मैं कभी मैं इस क़दर तन्हा नहीं था ज़माना किस लिए ख़ैरात देता किसी साइल का मैं कासा नहीं था तो फिर ये ज़हर कैसा जिस्म-ओ-जाँ में अगर ज़ख़्म-ए-जिगर गहरा नहीं था तुम्हारे दर्द ने जैसा बनाया मैं इस से पेशतर ऐसा नहीं था मैं कैसे मंज़िलें पाता ये 'नक़्क़ाश' जहाँ मैं था कोई रस्ता नहीं था