जब शाख़-ए-गुल चटख़ के गिरी राज़ की तरह ख़ुशबू का दिल लरज़ उठा आवाज़ की तरह वो धूल जिस को दी न किसी शहर ने अमाँ लिपटी हुई है पाँव से दम-साज़ की तरह इतना हवास-गीर था सूरज का इज़्तिराब मंज़र बदल गए तिरे अंदाज़ की तरह पाँव तले ज़मीं नहीं लेकिन ख़लाओं से रिश्ता मिला रहा हूँ रग-ए-साज़ की तरह इस मुंजमिद सुकूत में 'ख़ालिद' मिरी सदा पथरा गई है हसरत-ए-परवाज़ की तरह