जब सीने से मरने का डर निकलेगा और ही कुछ ये ख़ाक का पैकर निकलेगा बो जो रहा हूँ अम्न-ओ-अमाँ की फ़स्लें मैं देखना कल इस ख़ाक से लश्कर निकलेगा सैल बनेगा होने का इदराक कभी इस मंज़र से और ही मंज़र निकलेगा दुनिया जीते जी जो दुनिया हो न सकी सीने से ये अरमाँ मर कर निकलेगा गुल-चीनों के ज़ुल्म की कोई हद ही नहीं किस दिन हर इक शाख़ से ख़ंजर निकलेगा जिद्द-ओ-जहद की जिस से बातें होती हैं क्या होगा जब इक दिन मुख़्बर निकलेगा 'बेदी' मेरा क़दम ही होगा दुनिया में जो हद्द-ए-इम्काँ से बाहर निकलेगा