जब तक दिल-ए-ख़्वाबीदा बेदार नहीं होता मय-ख़्वार हक़ीक़त में मय-ख़्वार नहीं होता जो चीज़ है दुनिया की इक ख़ास अतिय्या है क़तरा हो कि ज़र्रा हो बेकार नहीं होता देखा है जिन्हें वक़्फ़-ए-आदाब-ए-ग़म-ए-जानाँ उन से ग़म-ए-जानाँ का इज़हार नहीं होता हमदर्दी-ए-आलम पर क्या नाज़ करे कोई जब दिल ही मोहब्बत में ग़म-ख़्वार नहीं होता तुम शेर तो कहते हो ये इल्म भी है तुम को दिल से न अगर निकले तलवार नहीं होता इंकार का मतलब ही इक़रार-ए-मोहब्बत है 'शाइर' लब-ए-जानाँ पर इक़रार नहीं होता