जब तक तिरी निगाह का जादू चला न था शोहरा जुनून-ए-इश्क़ का इतना हुआ न था आए थे मय-कदे में कई बार हम मगर ऐसा मचल के रात का जूड़ा खिला न था कुछ मस्लहत-पसंद तबीअ'त न बन सकी वर्ना हम अहल-ए-ग़म का मुक़द्दर बुरा न था अपनी तबाहियों पे मैं फ़ुर्सत के बावजूद यूँ क़हक़हा लगा के अभी तक हँसा न था रूहें तलाश में थीं अज़ल ही से ऐ नदीम मुझ से तिरा विसाल कोई हादिसा न था