हम किसी पैकर-ए-मरमर की तरफ़ क्या देखें आइना देख के पत्थर की तरफ़ क्या देखें देखना है तो कभी डूब के देखेंगे उसे इस बुलंदी से समुंदर की तरफ़ क्या देखें सामने जो है वो मंज़र नहीं देखा जाता सर पे लटके हुए ख़ंजर की तरफ़ क्या देखें बंद कमरे में घुटन है मगर उलझन तो नहीं खिड़कियाँ खोल के बाहर की तरफ़ क्या देखें हम को मालूम है हर लम्हा-ए-हस्ती का हिसाब उठ के हर सुब्ह कैलेंडर की तरफ़ क्या देखें