जब तलक चर्ब न जूँ शम्-ए-ज़बाँ कीजिएगा सरगुज़िश्त अपनी का क्या ख़ाक बयाँ कीजिएगा बर्क़ साँ हँस के जो वा आप दहाँ कीजिएगा मअनी-ए-मख़्ज़न-ए-असरार अयाँ कीजिएगा दिल को जब माइल-ए-चश्मान-ए-बुताँ कीजिएगा तुरफ़तुल-ऐन में सैर-ए-दो-जहाँ कीजिएगा दिल-ए-सद-पारा मिरा शीशा-ए-ब-शिकस्ता है इस को पामाल ज़रा देख के हाँ कीजिएगा दिल-ए-पुर-आबला लाया हूँ दिखाने तुम को बंद ऐ शीशा-गरो! अपनी दुकाँ कीजिएगा क्यूँ लगाते हो मिरे सीना-ए-सद-चाक को हाथ चश्म-ए-सोज़न से नज़र बख़िया-गराँ कीजिएगा तुम को अपना दिल-ए-पुर-दाग़ दिखाते जो कभी सैर-ए-गुलशन न फिर ऐ लाला-रुख़ाँ कीजिएगा हाथ से मोहतसिब-ए-दहर के इक दिन बरपा सर पे शीशे के ख़राबी न यहाँ कीजिएगा आबरू मद्द-ए-नज़र हम को है तेरी याँ तक अश्क को रोकिएगा ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ कीजिएगा क्यूँकि नर्गिस तिरी आँखों से करे हम-चश्मी जब तक उस का न इलाज-ए-यरक़ाँ कीजिएगा रू-कशी देख न कर गोशा-नशीनों से फ़लक हर तरह से तिरी ख़ातिर पए-शाँ कीजिएगा नावक-ए-आह लगाएँगे पियापे तुझ पर क़द्द-ए-ख़म-गश्ता को जब अपने कमाँ कीजिएगा अब्र-ए-नैसाँ की भी झड़ जाएगी पल में शेख़ी दीदा-ए-तर को अगर अश्क-फ़िशाँ कीजिएगा दिल में कुछ ये न समझना कि हमारा है दौर जामादारी में शक ऐ बादा-कशाँ कीजिएगा दिल में रखते हो ख़याल उस की कमर का जो 'नसीर' ला-मकाँ में कहीं क्या जा के मकाँ कीजिएगा