जब तेरे तसव्वुर से तस्लीम कि शह पाई चुप-चाप रहा शाइ'र डसती रही तन्हाई सद-रंग गुलिस्ताँ हैं रक़्साँ पस-ए-मंज़र में अल्लाह रे इस गुल की ये अंजुमन-आराई शायद तिरी यादों से कुछ इस का त'अल्लुक़ है इक आग लगा बैठी ये दूर की शहनाई ये इज्ज़-ए-हुनर कब है इज़हार-ए-हक़ीक़त है इम्कान से आगे है ज़र्रात की पहनाई शाइ'र की इबादत है महताब के मंदिर में तेरे बुत-ए-सीमीं के क़दमों पे जबीं-साई 'क़ाज़ी' मिरे सीने की ये आग सुलगती सी भीगी हुई रातों ने कुछ और भी भड़काई