डर ये नहीं कि हिज्र में जीना मुहाल है डर है कि ख़ाकसार कसीर-उल-'अयाल है छे सात सेर खा के भी कहता है मौलवी आलम तमाम हल्क़ा-ए-दाम-ए-ख़याल है अब वो शब-ए-फ़िराक़ की नींदें कहाँ नसीब ऐ दिल शब-ए-विसाल में सोना मुहाल है कुत्तों का इक हुजूम जिलौ में है रात दिन पतला दयार-ए-हुस्न में आशिक़ का हाल है दफ़ना के जा रहा है मुझे वो सितम-ज़रीफ़ आँखों में जू-ए-ख़ूँ है बग़ल में कुदाल है समझा के मुझ को इश्क़ ख़लल है दिमाग़ का नासेह ने उन से शादी की मेरा ख़याल है कह दो ये अपनी माँ से करे फ़न का एहतिराम खाँसी ये क्या है जिस में कि सुर है न ताल है ये अह्द-ए-बर्शगाल किराए का ये मकाँ या'नी हर एक कमरे में छोटा सा ताल है खेला किए ये ताश मैं रोया किया लहू चारागरों के फ़ैज़ से जीना मुहाल है