जब तुझ अरक़ के वस्फ़ में जारी क़लम हुआ आलम में उस का नाँव जवाहर-रक़म हुआ नुक़्ते पे तेरे ख़ाल के बाँधा है जिन ने दिल वो दाएरे में इश्क़ के साबित-क़दम हुआ तुझ फ़ितरत-ए-बुलंद की ख़ूबी कूँ लिख क़लम मशहूर जग के बीच अतारद-रक़म हुआ ताक़त नहीं कि हश्र में होवे वो दाद-ख़्वाह जिस बे-गुनह पे तेरी निगह सूँ सितम हुआ बे-मिन्नत-ए-शराब हूँ सरशार-ए-इम्बिसात तुझ नैन का ख़याल मुझे जाम-ए-जम हुआ जिन ने बयाँ लिखा है मिरे रंग-ए-ज़र्द का उस कूँ ख़िताब ग़ैब सूँ ज़र्रीं-रक़म हुआ शोहरत हुई है जब से तिरे शेर की 'वली' मुश्ताक़ तुझ सुख़न का अरब ता अजम हुआ