जब तुझे मिलने की तदबीर नई होती है सूरत-ए-गर्दिश-ए-तक़दीर नई होती है मुंहदिम होता हूँ हर आन पस-ए-हर्फ़-ए-कुहन तब कहीं शे'र की ता'बीर नई होती है कैसे लौटा मैं तिरे दस्त-ए-ज़माना-गर में तेरे छूने से तो तस्वीर नई होती है वक़्त दे जाए जिसे याद पुरानी कोई रोज़ उस हर्फ़ की तासीर नई होती है इक अजब कैफ़ में चलता हूँ सर-ए-दश्त-ए-बला जब मिरे पाँव में ज़ंजीर नई होती है हम बदलते नहीं 'अरमान' कभी जाह-ओ-हशम हाँ इसी ख़्वाब की ता'बीर नई होती है