जब उन के पा-ए-नाज़ की ठोकर में आएगा कितना ग़ुरूर राह के पत्थर में आएगा सौदा-ए-इश्क़ कहते हैं अहल-ए-ख़िरद जिसे क्या जाने कब ये वस्फ़ मिरे सर में आएगा ऐसी जगह मकान बनाना न था मुझे जंगल तमाम उड़ के मिरे घर में आएगा मुझ से निकल के जाएगा क़ातिल मिरा कहाँ इक दिन तो मेरे सामने महशर में आएगा हम ख़ुद ही क्यूँ न कर लें सितम जान-ए-ज़ार पर क्या इस से फ़र्क़ शान-ए-सितमगर में आएगा सारे ही आब-ओ-गिल के सफ़र मैं ने कर लिए अब आसमान भी मिरी ठोकर में आएगा मौसूम है जो ज़हर-ए-हलाहल के नाम से अब वो मिरे नसीब के साग़र में आएगा ये क्या ख़बर थी 'रम्ज़' कि आज़ाद होने पर सैलाब-ए-ख़ूँ उमड के हर इक घर में आएगा