जब उस को सोच के देखा तो ये कमाल हुआ मिरी लुग़त का हर इक लफ़्ज़ बे-मिसाल हुआ वो शहर-ए-ख़्वाब से गुज़रा तो दफ़अ'तन मुझ को हक़ीक़तों के बदलने का एहतिमाल हुआ नुमूद-ए-ज़ात को पहले ही रौशनी कम थी बढ़े जो साए तो कुछ और भी मलाल हुआ थमा न गिरने सँभलने का सिलसिला यूँ ही मैं अपनी ख़ाक से उट्ठा तो ला-ज़वाल हुआ ये मो'जिज़ा ही बहुत है कि पैकर-ए-फ़न के जो कोई रब्त में आया वो हम-ख़याल हुआ हम अपनी सादा-मिज़ाजी में सब से पूछते हैं हमारे जैसा भी आख़िर किसी का हाल हुआ हमीं थे उस के जवाबों के मुंतज़िर 'राहत' सो बार बार हमीं से कोई सवाल हुआ