जब वो यूसुफ़ ही न हो मिस्र के बाज़ार के पास फिर भला कौन सा जज़्बा हो ख़रीदार के पास पहले हर शख़्स था इख़लास-ओ-वफ़ा का पैकर अब ये दौलत भी कहाँ मिलती है दो-चार के पास हम-सफ़र मेरे अक़ीदत से क़दम छूने लगे मुझ को देखा जो कभी जुब्बा-ओ-दस्तार के पास अब तो अपनों में मुरव्वत की है दौलत मफ़क़ूद ये ख़ज़ीना भी हमें मिलता है अग़्यार के पास हुस्न ही हुस्न है महफ़िल में तुम्हारी लेकिन ताब-ए-दीदार नहीं तालिब-ए-दीदार के पास मुफ़्लिसी अपनों को बेगाना बना देती है कोई आता नहीं गिरती हुई दीवार के पास मुस्कुराता है ग़म-ए-ज़ीस्त में 'मंज़र' ऐसे फूल जिस तरह गुलिस्ताँ में खिले ख़ार के पास