जब याद किया उस ने फिर किस की फ़रामोशी यूँ आते हैं होश 'अकबर' यूँ जाती है बे-होशी बैठे हुए आँखों में ख़ुद महव-ए-तमाशा हो देखा करो तुम हम को हम देखें तो रूपोशी वो तुर्बत-ए-आशिक़ पर मुँह ढाँप कर आए हैं अल्लाह रे शर्म उन की अल्लाह रे रू-पोशी सुनते हैं कि था पहले दरिया में निहाँ क़तरा अब बहर ने चाही है क़तरे से हम-आग़ोशी महशर भी हुआ बरपा उट्ठे न तिरे कुश्ते बेहोश है नाम उस का अल्लाह रे बे-होशी भूलेगा न ऐ 'अकबर' उस्ताद का ये मिसरा साक़ी दिए जा साग़र जब तक न हो बे-होशी