ज़बाँ पे आह न सीने पे दाग़ लाया मैं तुम्हारी बज़्म से क्या ना-मुराद आया मैं सुराग़-ए-मेहर-ओ-मोहब्बत का ढूँडियो न कहीं कि उन की राख हवा में बिखेर आया मैं ज़मीं की शम्ओं से जब दिल को रौशनी न मिली फ़लक से चाँद सितारे उतार लाया मैं ख़याल ओ फ़िक्र की आवारगी अरे तौबा निकल गया जो कहीं हाथ ही न आया मैं हज़ार क़ाफ़िले मर्ग ओ हयात के गुज़रे न दर्द ने कभी थामा न मुस्कुराया मैं शबाब पर था चमन इंतिख़ाब-ए-गुल कैसा तमाम फूल नज़र में समेट लाया मैं कोई सफ़र सा सफ़र था कोई थी बाट सी बाट रह-ए-हयात पे दो-गाम चल न पाया मैं बजाए नाला रज़ा बार-हा हुआ ऐसा ग़मों की शोरिश-ए-पैहम पे मुस्कुराया मैं