मोहब्बत में सुकूँ महरूमियों के बा'द आता है कि जब हर आसरा मिट जाए तब दिल चैन पाता है ख़ुद अपना ही लहू आवाज़ को रंगीं बनाता है कुचल जाता है जब दिल तब कहीं नग़्मा सुनाता है ये क्या जब्र-ए-मशीयत है ये क्या जब्र-ए-सदाक़त है कि जिस को हम भुलाना चाहते हैं याद आता है ये क्या ज़िद है कि दुनिया भी रखो और जी न मैला हो ये दुनिया ख़ुश ही तब होती है जब दिल टूट जाता है करम कैसा यहाँ तो नर्म लहजे से भी दहशत है तबीअत ख़ुश तो हो जाती है पर दिल थरथराता है