ज़बाँ पे हर्फ़-ए-शिकायत अरे मआज़-अल्लाह मुझे तिरे सितम-ए-सब्र-आज़मा की क़सम बस इक निगाह-ए-करम का उमीद-वार हूँ मैं जफ़ा-शिआर तुझे मेरी इल्तिजा की क़सम तू है बहार तो दामन मिरा हो क्यूँ ख़ाली इसे भी भर दे गुलों से तुझे ख़ुदा की क़सम ग़ज़ब की छेड़ है 'हादी' ये और क्या कहिए वो खा रहे हैं मिरे तर्क-ए-मुद्दआ की क़सम