ज़ब्त कर आह बार बार न कर ग़म-ए-उल्फ़त को शर्मसार न कर जिस को ख़ुद अपना ए'तिबार न हो ऐसे इंसाँ का ए'तिबार न कर उस के फ़ज़्ल-ओ-करम पे रख नज़रें अपने सज्दों का ए'तिबार न कर बाग़ उजड़ने का ग़म ही क्या कम है जाने भी दे ग़म-ए-बहार न कर लोग तुझ को हक़ीर समझेंगे हद से ज़ाइद भी इंकिसार न कर वक़्त से फ़ाएदा उठा लेकिन वक़्त का कोई ए'तिबार न कर लुत्फ़ उठा बस निगाह-ए-अव्वल से हर नज़र को गुनाहगार न कर जिस से फ़ित्ने बपा हों दुनिया में ऐसे ग़ाफ़िल को होशियार न कर 'क़द्र' को तू ने दी है जब इज़्ज़त ऐ ख़ुदा उस को बे-वक़ार न कर