तेग़-ए-जफ़ा को तेरी नहीं इम्तिहाँ से रब्त मेरी सुबुक-सरी को है बार-ए-गराँ से रब्त दुनिया को हम से काम न दुनिया से हम को काम ख़ातिर से तेरी रखते हैं सारे-जहाँ से रब्त उड़ते ही गर्द जाती है जो सू-ए-आसमाँ है कुछ न कुछ ज़मीन को भी आसमाँ से रब्त इज़हार-ए-हाल के लिए सूरत सवाल है है गुफ़्तुगू से काम न हम को ज़बाँ से रब्त चश्मे की तरह रहती हैं जारी मुदाम ये आँखों को हो गया है जो आब-ए-रवाँ से रब्त बे-रब्तियों ने 'क़द्र' मिटाई जो रब्त की है गोश्त को भी अपने न अब उस्तुख़्वाँ से रब्त