ज़ाब्तों की और क़द्रों की रवानी देखना फिर हवा में चार-सू इक बद-गुमानी देखना लम्हा लम्हा फैलता ही जा रहा है चार-सू शहर में जंगल की इक दिन बे-करानी देखना चाहता है वो मुझे ख़ुश देखना हर हाल में छीन लेगा मुझ से मेरी नौहा-ख़्वानी देखना आने वाली और अभी रातें हैं तारीक-ओ-मुहीब और उतरेंगी बलाएँ आसमानी देखना धूप निकलेगी तो बह निकलेंगे फिर से आबशार बर्फ़ दोहराएगी फिर अपनी कहानी देखना अपना घर हम ने बसाया है लब-ए-दरिया तो फिर बाम-ओ-दर तक आएगा इक रोज़ पानी देखना आएँगे 'बेताब' मौसम फिर चनारों पर नए लाएँगे रंगों की इक ताज़ा कहानी देखना