दिल जो है आग लगा दूँ उस को और फिर ख़ुद ही हवा दूँ उस को जो भी है उस को गँवा बैठा है मैं भला कैसे गँवा दूँ उस को तुझ गुमाँ पर जो इमारत की थी सोचता हूँ कि मैं ढा दूँ उस को जिस्म में आग लगा दूँ उस के और फिर ख़ुद ही बुझा दूँ उस को हिज्र की नज़्र तो देनी है उसे सोचता हूँ कि भुला दूँ उस को जो नहीं है मिरे दिल की दुनिया क्यूँ न मैं 'जौन' मिटा दूँ उस को