जफ़ा का तुम क्या जवाज़ दोगे क़ज़ा की बंदिश तमाम होगी मैं सोचता हूँ दु'आ हमारी ख़ुदा से जब हम-कलाम होगी गुमान ये था सफ़र की कुल्फ़त फ़राग़तों पर तमाम कर लूँ मक़ाम-ए-वहशत के आते आते किसे ख़बर थी कि शाम होगी तुम्हारे लहजे ने छीन ली है शबाब से तर्ज़-ए-ख़ुश-नुमाई रही-सही शा'इरी है वा'इज़ तिरी दु'आ से हराम होगी मिरी तरब-गाह से ये ताज़ा जो जंग छेड़ी है बिजलियों ने हवा के तेवर बता रहे हैं ये चर्ख़-ए-गर्दूं के नाम होगी जलाल की ‘आफ़ियत मनाए फिरे भला कब तलक ज़माना ये पारसाई नुमाइशी है ये चार जल्वों में राम होगी ये सदमा-ए-'उज़्र-ओ-हिज्र 'साग़र' अभी नज़र से परे ही रखना अभी मोहब्बत नई नई है अभी तहम्मुल में ख़ाम होगी