जगह फूलों की रखते हैं घना साया बनाते हैं चलो अपने ख़याली शहर का नक़्शा बनाते हैं अभी तो चाक पर हैं क्या कहें हम अपने बारे में न जाने दस्त-ए-कूज़ा-गर हमें कैसा बनाते हैं बनानी है हमें तस्वीर-ए-दिल काग़ज़ पे लेकिन हम कभी दरिया बनाते हैं कभी सहरा बनाते हैं ग़ज़ल उस के लिए कहते हैं लेकिन दर-हक़ीक़त हम घने जंगल में किरनों के लिए रस्ता बनाते हैं कभी भूले से भी उस की तरफ़ मत देखना 'अज़हर' ज़रा सी बात का ये लोग अफ़्साना बनाते हैं