जागता रहता हूँ और खिड़की खुली रहती है क्या ख़ुशी है कि मुसीबत ही पड़ी रहती है इतनी दीवारें गिरा कर भी यही देखा है एक दीवार मिरी रह में खड़ी रहती है बाग़ में बिखरे हुए रंग बहुत ज़ालिम हैं बाज़ गोशों में तो वीरानी पड़ी रहती है हिज्र में वस्ल के फल-फूल खिले रहते हैं शाख़ बिछड़े हुए मौसम से भरी रहती है एक वीराना है जो शहर को खा जाता है एक बस्ती है जो जंगल में बसी रहती है अब वो ख़ुश-चेहरा सी ख़ातून कहाँ पर होगी फ़िक्र सी कोई मिरे जी को लगी रहती है हद से बढ़ती हुई वहशत भी अजब शय है 'वफ़ा' मेरे चेहरे पे किसी ग़म की हँसी रहती है मौसम-ए-गिर्या गुज़र जाता है मक़्सूद-'वफ़ा' मेरी दीवार पे बारिश की नमी रहती है