रात के दश्त में फैला हुआ सन्नाटा हूँ अपने साए से बिछड़ने की सज़ा पाता हूँ मैं कभी अपने लिए ग़ैर नहीं था इतना आईना देख के कल रात बहुत रोया हूँ तुम से मिलने की ख़ुशी है न बिछड़ने का मलाल ख़ुद-फ़रेबी के अब इस मोड़ पे आ पहुँचा हूँ जब से इक ख़्वाब की ता'बीर मिली है मुझ को मैं हर इक ख़्वाब की ता'बीर से घबराता हूँ कोई मिलता ही नहीं आँख मिलाने वाला मैं तिरे शहर में सूरज की तरह तन्हा हूँ ज़िंदगी का कोई मक़्सद ही नहीं है 'आज़र' और मैं हूँ कि ज़रूरत की तरह ज़िंदा हूँ